रूप-रंग संग यौवन दीन्हा,
काया दीन्ही अति सूघरी…
नारी की सब माया दीन्ही,
जनम दीन्ही सुन्दर नगरी…
माँ-बापू संग दादा-दादी,
सब की रही मैं दुलरी…
गुड्डे-गुड़ियों संग बचपन बीता,
यौवन में मैं खूब सजी-सँवरी…
सावन में नित झूला झूली,
सखियन संग गाई मैंने कजरी…
एक दिन ऐसा आया सखी री,
जो ब्याह चली मैं पगली…
हुआ सुमंगल सासरे,
मिली पिया से मैं बावरी…
सुख से दिन बीत रहे थे,
रहती मैं तो मस्त-मगन री…
एकदिन…सासुर वाले बोले…,
हमें तो अब सोहर की चाह री…
दिन पर दिन बीत गए सखी..!
पर मिल न सकी यह सौगात री…
सास-ननद संग जेठ-जेठानी,
अब ताना मारे दिन-रात री…
पास-पड़ोसन संग नाउन चाची..!
कहती जाती मुझको बाँझ री…
और कहूँ क्या…मैं सखी री…!
जो मुस्काते थे सजन साँवरे,
देख मेरे दो नयन काज़रे…
अब वे भी झट-पलट मुड़ जात री
जो दुख नारी को सबसे भारी…!
वा दुख से अब मैं लिपट रही…
सगरी नगरी बाँझन कहि-कहि…!
अब तो मुझ पर झपट रही….
सच कहती हूँ मैं तुमसे सखी री…
दुख पहाड़ सम इसको जानो,
जानो सगरी दुख की जननी…!
यहि दारुण दुःख से…सच में…
सूख जात सब हांड-मांस….औ..!
सब खुनवा है जात जरी….
ना जानूँ मैं तो कछु भी सखी री,
कौन करम के लाठी मारी प्रभु ने
कौन करम के यह दण्ड दई…
ना जानूँ यह भी सखी री…
केहि कारन मो संग…?
प्रभु ने ऐसी कपट करी…
प्रभु ने ऐसी कपट करी…
रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद–कासगंज