गाँव-गाँव, शहर-शहर….
गली-गली और डगर-डगर…
मैं ढूँढता हूँ अक्सर…!
एक ऐसा शख़्श,
जिसकी आँखों में…
हर पल नाच रहा हो,
बस परिवार का अक्स…
जिसके दरवाजे पर होने से,
सजती रहती है महफिल…
घर में… बनी रहती है हलचल…
हर कोई लेता है हाल-चाल,
अनायास ही घर रहता है मालामाल…
जिसके आँगन में आते ही,
छा जाती है अद्भुत सी शांति…
जिसका भी कुशल क्षेम पूछा उसने,
सच में उसकी तो….!
अपने आप ही बढ़ जाती कांति…
आँगन में भोजन के पहले,
वह सब के हाल-चाल लेता…
खुश हो गया जिस पर…
उसकी पीठ थपथपा देता…
नाराजगी में सच कहूँ तो…
कड़क होकर गरिया भी देता…पर…
कोई नहीं लगा सकता था,
इससे बातों में नमक मिर्च का तड़का
वैसे तो यह… दिल से बेहद नरम होता
पर जब कभी किसी पर भड़का…!
समझाना नहीं होता सम्भव,
किसी घरवाले के वश का….
उसकी मुस्कुराहट तो….!
परिवार की शान होती है,
घरवाली और भौजाइयाँ तो,
बस उसी हँसी पर कुर्बान होती हैं…
मज़ाल क्या जो उसे दिख जाए
घर में कोई बच्चा रोते… फिर तो…
ज़ेब के मिश्री-टॉफी और खिलौने,
सब उसी बच्चे के होते…
रात में घर के अन्दर,
जब सभी आराम से सोते…
मिलते श्रीमान जी… मस्त हो…
जगते-खाँसते… हुक्का गुड़गुड़ाते…
घर का…. कौन नहीं सँवारता…?
इन श्रीमान जी की पगड़ी…
सभी देखना चाहते… हरदम….!
रूआबदार मूँछे उसकी तगड़ी.…
गज़ब का होता है इसका प्रोटोकॉल…
देसी भाषा में कहूँ तो….!
पूरा का पूरा भौकाल…
ना गनर….. ना फॉलोअर…..
ना बोलेरो ना रेंज रोवर..पर…
साहब… श्रीमान जी का रौब-दाब…!
खानदान भर में सबसे ऊपर
समझ ही गए होंगे मित्रों…!
यही व्यक्ति घर में मुखिया,
और…. गाँव में लम्बरदार होता….
सभी जानते हैं….
घर वालों का…. बस यही अकेला…
और बेहतर तीमारदार होता था…
कहूँ या न कहूँ…..!
आप भी मानोगे मित्रों… मुखिया तो…
खुद दिखा नहीं कभी बीमार होता …!
गाँव-गाँव….. शहर-शहर….
गली-गली और डगर-डगर…
मैं ढूँढता हूँ अक्सर….बस…
यही शख़्श… यही शख़्श….
जो खुद कभी नहीं बीमार होता…
जो खुद कभी नहीं बीमार होता…

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद—कासगंज।

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