– प्रोफेसर डॉ. सरोज व्यास

17 जुलाई 2024 से चातुर्मास आरंभ हो गया है | हिंदू वार्षिक पंचांग के अनुसार चातुर्मास आषाढ़ महीने की देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होता है और इसका समापन कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी (देवउठनी) एकादशी को होता है । सनातन और जैन धर्म में चातुर्मास का विशेष महत्व है । चातुर्मास को केवल चार महीनों की अवधि नहीं समझा जा सकता अपितु यह रहन-सहन, खान-पान और बदलते मौसम में स्वास्थ्य की दृष्टि से दैनिकचर्या में आमूलचूल परिवर्तन का समय है | यदपि वर्षा ॠतु में समस्त जड़-चेतन के मन के भावों को रामचारित मानस के किष्किंधाकाण्ड में वर्षा ॠतु वर्णन की चौपाई “बरषा काल मेघ नभ छाए । गरजत लागत परम सुहाए” ॥4॥ में वर्णित किया गया है | तथापि बारिश में पर्यावरण में, भोजन में एवं जल में सुक्ष्म अदृश्य हानिकारक कीटाणुओं की संख्या अत्यधिक बढ़ जाती है । इसलिए धार्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से चातुर्मास में शरीर को स्वस्थ रखने के लिए साधना, शुद्ध-सात्विक भोजन, अल्पाहार और व्रत-उपवास का पालन अत्यंत लाभप्रद और आवश्यक समझा गया है।
हिन्दू धर्म में चातुर्मास का महत्व
चातुर्मास अर्थात सावन, भादौ, अश्विन और कार्तिक माह । चातुर्मास के दौरान आषाढ़ के आखिरी दिनों में भगवान वामन और गुरु पूजा (गुरु पूर्णिमा), सावन में शिव आराधना, भाद्रपद में भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव, आश्विन में शारदीय नवरात्रि और कार्तिक माह में दीपावली और भगवान विष्णु के योग निद्रा से उठने के साथ ही कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी को तुलसी विवाह का महापर्व मनाया जाता है । इन चार महीनों में किसी भी प्रकार के मांगलिक कार्य जैसे पाणिग्रहण संस्कार, मुंडन, यज्ञोपवित, गृहप्रवेश संस्कार वर्जित होते हैं |
व्रत – उपवास
चातुर्मास के चार महीनों में संत-महात्मा, जैनमुनि और मनीषी अपनी परिव्राजक (सदैव भ्रमण करने वाले सन्यासी) जीवनशैली का परित्याग कर किसी स्थान विशेष पर ठहरकर उपवास, मौन-व्रत, ध्यान-साधना और एकांतवास से अपने तपोनिष्ठ जीवन को उन्नत बनाने का सार्थक प्रयास करते हैं और जनसाधारण को भी व्रत-उपवास करने की प्रेरणा देते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से उपवास मात्र भोजन का परित्याग नहीं है, अपितु उपवास का अर्थ है, निकट वास करना अर्थात परमात्मा (परम्+आत्मा = परमात्मा अर्थात सबसे श्रेष्ठ, जिसमें सब समाहित है) के नजदीक रहना है । भोजन का सर्वाधिक असर हमारे मन पर पड़ता है । मन की चंचलता क्षीण होते ही साधक को परमात्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है ।
छांदोग्य उपनिषद में मन के निर्माण की प्रक्रिया को समझाते हुए कहा गया है कि मनुष्य द्वारा ग्रहण किया गया अन्न शरीर में तीन भागों विभाजित हो जाता है । प्रथम अन्न का स्थूल भाग जिससे अपशिष्ट बनता है जो शरीर से मल से रूप में निकल जाता है । द्वितीय अन्न का मध्य भाग जिससे रक्त एवं मांस-मज्जा बन जाता है और अन्न के सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण होता है । इसलिए कहा गया है- जैसा खाओ अन्न, वैसा हो मन ।
धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी चातुर्मास में परहेज करने और संयम अपनाने का महत्व है। वर्षा ॠतु में सुक्ष्म किटाणुओं (बैक्टीरिया), कीड़े-मकोड़ों, जीव-जंतुओं की संख्या अत्यधिक बढ़ जाती है, इनसे बचने के लिए खाने-पीने में परहेज किया जाता है ।
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में चातुर्मास का महत्व
जैन और बौद्ध धर्म में भी चातुर्मास का बड़ा ही महत्व है । वैसे तो सभी धर्म अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले है लेकिन जैन और बौद्ध धर्म में इसका विशेष पालन किया जाता है । बारिश के मौसम में कई प्रकार के कीड़े, सूक्ष्म जीव सक्रिय हो जाते हैं । ऐसे में अधिक चलने-फिरने से जीव हत्या का पाप लग सकता है और यही वजह है साधु-संत एक ही स्थान पर रूकते हैं। वर्तमान समय में पर्यावरण के लिए भी इस सिद्धांत का समर्थन किया जाता है | बारिश के दिनों में कई जीवों का जन्म होता है जैसे – अंडज, पिंडज, स्वेतज, जलचज, थलचर, नवचर आदि | पैर के तलवे के नीचे पड़ने पर ही इनकी मृत्यु हो जाती है, ऐसे में जाने-अनजाने हत्या के पाप से बचने के किए भी एक स्थान पर रहकर स्व को जानना हर प्रकार से अपेक्षित है |
आज से नहीं बल्कि त्रेता द्वापर और सतयुग से यह प्रथा-परंपरा चली आ रही है | भगवान श्री राम जब भगवती सीता की खोज में जब निकले थे, उस समय चातुर्मास आरंभ हो गया था | ऐसे में प्रभु श्री राम ने प्रवर्षण पर्वत पर रहकर चातुर्मास व्रत का विधिवत पालन किया तथा अपनी यात्रा को स्थगित कर दिया और देवउठनी एकादशी के बाद माता की खोज में निकालने से पूर्व भ्राता अनुज लक्ष्मण जी को कहते है –
बरषा गत निर्मल रितु आई । सुधि न तात सीता कै पाई ॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं । कालुह जीति निमिष महुँ आनौं ॥1॥
भावार्थ – वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई है, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली । एक बार कैसे भी पता मिल जाए तो काल को जीतकर भी पल भर में जानकी को ले आऊँ ॥1॥

चातुर्मास और आयुर्वेद का संबंध

कहा जाता है कि चातुर्मास में मांसाहार भोजन, मदिरा, पत्तेदार सब्जियां और दही से परहेज करना चाहिए, लेकिन क्यों इन चीजों का सेवन वर्जित माना गया है ? इस सम्बन्ध में आयुर्वेद के अनुसार – चार महीने में मौसम में बदलाव होते हैं | सावन में बारिश होती है, भाद्रपद में आद्रता और नमी, आश्विन में जाती हुई गर्मी और कार्तिक में ठंड के मौसम की शुरुआत होने लगती है | इस दौरान पाचन शक्ति कमजोर रहती है, क्योंकि मौसम में बदलाव के कारण शरीर और आसपास के तापमान में लगातार उतार-चढाव होता है | साथ ही रोग उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया तथा वायरस भी बढ़ने लगते हैं | ऐसे समय में अत्यधिक मसालेदार एवं तामसिक भोजन पचता नहीं है और इससे कई प्रकार के रोग होने का खतरा बढ़ जाता है | यही कारण है कि आयुर्वेद में सावन के महीने में पत्तेदार सब्जियां, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और इसे बने पदार्थ और कार्तिक में प्याज लहसुन तथा उड़द दाल नहीं खाने की सलाह दी गयी है |
आधुनिकता की दौड़ और वैश्वीकरण के इस युग में हम भारतीय अपनी संस्कृति ओर संस्कारों से विमुख हो रहे है | कारण स्पष्ट है, युवाओं को धार्मिक आचार-विचार, अनुष्ठान और नीति-नियमों का अनुसरण करने में धर्म-भीरुता परिलक्षित होती है | क्योंकि सनातन संस्कृति की आधारशिला धर्म पर रखी हुई है | समय है, आध्यात्म और धर्म में समाहित गूढ़ ज्ञान के वैज्ञानिक पक्ष को तर्कसंगत रखे जाने का | विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम मे प्रत्येक धर्म के धार्मिक पर्वों, नियमों, निर्देशों और पद्धतियों के वैज्ञानिक पक्ष को उजागर किया जाना चाहिए | शिक्षा के सर्वांगीण विकास के लिए यह नितांत आवश्यक है अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सनातन संस्कृति आचरण की अपेक्षा चर्चाओं में सिमट कर रह जायेगी |

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