वैसे उस भयावह समय को कोई भी याद नहीं करना चाहता तथापि चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि सबसे अधिक प्रहार शिक्षा पर हुआ है | वर्ष 2020-2021 में विश्व ने कोविड माहमारी की त्रासदी को झेला है, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और शैक्षिक रुप से मनुष्य टूट कर बिखर गया | टूट कर बिखरे हुये मनोबल को स्नातक स्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रमों में गिरते हुये नामांकन प्रतिशत के माध्यम से देखा जा सकता है |

चर्चा और चिंता का विषय है, शिक्षा का गिरता स्तर, पाठ्यक्रमों में नामांकन प्रतिशत में कमी और बढ़ती फीस तथा शिक्षित बेरोजगारी | देखा जाए तो शिक्षा, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए लोहे के चने चबाने जैसा हो गया है | प्रतिवर्ष फीस बढ़ जाती है और नौकरियां घट जाती है, इन सबके लिए कौन जिम्मेदार है ? शिक्षा मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, केन्द्रीय विश्वविद्यालय, राज्य सरकारों के विश्वविद्यालय, मानित विश्वविद्यालय, कुलपति, शिक्षाविद अथवा नीति-निर्माता ? यक्ष प्रश्न है, लेकिन फिर भी अभिभावक जैसे-तैसे करके इस आशा के साथ अपने बच्चों का नामांकन व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में करवाते है कि उपाधि मिलने पर नौकरी मिलेगी | सामर्थ्य से बाहर जाकर प्रतिवर्ष लाखों रुपये की फीस भी भरते है, लेकिन कितनों के स्वपन साकार होते है, यह प्रबुद्ध पाठकों से छिपा नहीं |

स्वतंत्रता के बाद यदि राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों की संस्तुतियों, शैक्षिक आयोगों की सिफारिशों और कमेटियों की समिक्षाओं को ईमानदारी से धरातल पर लागू किया जाता तो शायद भारत शिक्षित बेरोजगारी के अभिशाप से मुक्त होता | लेकिन ऐसा नहीं हुआ, भविष्य में होने के आसार भी नजर नहीं आ रहे है | कटु सत्य तो यह है कि दिन-प्रतिदिन शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट और शैक्षिक बेरोजगारी में वृद्धि हो रही हैं | फिर क्यों माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के विकसित भारत @2047 की भीष्म प्रतिज्ञा के पूरा होने का दिवा स्वपन समस्त भारतीय देख रहे है ? देखने तो अधिकार तो नहीं है, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में कथनी और करणी में जमीन और आसमान का अंतर है |

बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों को स्मरण करवाने की आवश्यकता नहीं है कि भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) द्वारा 1993 में एक राष्ट्रीय सलाहकार समिति की स्थापना की गई थी | जिसके अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल थे, जिसका उद्देश्य विद्यालयी बालकों की भीड़भाड़ की समस्या का अध्ययन करना और विद्यालय में बच्चों के बस्ते का बोझ कम करने के बारे में सुझाव देना था । अध्ययन हुआ और सुझाव भी दिए गये, लेकिन हश्र क्या हुआ ? यदि यशपाल कमेटी की सिफारिशों पर अमल होता तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 में पुन: बस्ते के बोझ को कम करने का उल्लेख नहीं करना पड़ता | यह केवल एक उदाहरण है | ऐसी अनेक सिफारिशें, सुझाव और निर्णय लिए जा चुके है लेकिन मेरी दृष्टि में यह केवल संदर्भ सूची में सुरक्षित आंकड़ों से अधिक नहीं है | पात्रता निर्धारण परीक्षाओं जैसे – नेट परीक्षा और नीट परीक्षा के दुर्भाग्यपूर्ण विवाद और संदेह के कारण निर्णयों से अभिभावकों और विद्यार्थियों के पैसे और समय की बर्बादी, कठोर परिश्रम का उपहास उनकी मानसिक स्थिति और आर्थिक स्तर पर वज्रपात है | *अभी भी समय है शिक्षा को सुलभ और सस्ता किया जाए | अन्यथा भले ही हम भौतिक स्तर पर विकसित हो जाए, किन्तु बौद्धिक स्तर पर भारत को गुरु की उपाधि से विभूषित होने में संदेह करना निराधार नहीं होगा |

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