– शिवपूजन पांडे, वरिष्ठ पत्रकार

बचपन में जब हम लोग नौटंकी देखने जाया करते थे तो गरीबी का अभिनय करने वाला व्यक्ति एक गाना जरूर गाता था –देने वाले किसी को गरीबी न दे, मौत दे दे मगर बदनसीबी न दे। आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश से गरीबी का उन्मूलन ना हो पाना, अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और देश के विकास में बदनुमा धब्बा है। बचपन से ही गरीबी हटाओ का नारा सुनते आ रहे करोड़ों गरीब मौत के मुख में समा चुके हैं। आखिर कब बदलेगी गरीबों की किस्मत? कब बदलेगा उनके बच्चों का भविष्य और कब बदलेगी उनकी जीवन शैली। देश पर लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस ने विभिन्न योजनाओं और आरक्षण के माध्यम से गरीबों को दूर करने का प्रयास किया, परंतु यह काम जमीन पर कम और कागज पर अधिक हुआ। यही कारण है कि जिन मुट्ठी भर लोगों का भला हुआ उनकी आने वाली पीढियों ने भी लगातार सरकारी योजनाओं का लाभ उठाया। सरकार की अदालत में वास्तविक गरीबों की फाइल को इतने नीचे दबा दिया गया है कि उसे बाहर निकालना संभव नहीं दिखाई देता। सर्वोच्च न्यायालय ने जब कभी इसमें सुधार की बात कही, तो वोट बैंक की राजनीति के चलते सरकार को वास्तविक गरीबों की फाइल को छूने की हिम्मत नहीं पड़ी।आरक्षण के चलते कुछ जातियों में हिम्मत जरूर बनी है कि यदि उनके बच्चे अच्छी पढ़ाई करें तो सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकते हैं। सबसे ज्यादा भयावह स्थिति सवर्ण गरीबों की है। चाहकर भी वे अपने बच्चों को महंगी उच्च शिक्षा नहीं दे सकते। उन्हें फीस में भी कोई रियायत नहीं है। सामाजिक रूप से भी वे सक्षम सवर्ण समाज की मुख्य धारा से दूर जीने को विवश हैं। आजादी की लड़ाई में सबसे अधिक बलिदान देनेवाली कौम आज राजनीतिक उपेक्षा के चलते बद से बदतर जीवन जीने के लिए विवश है। ऐसा लगता है कि वह भारत के दूसरे नंबर के नागरिक हैं ।अब बात करते हैं, लेख में दी गई फोटो के बारे में। फोटो में दिखाई दे रहे श्रीराम खिलावन मिश्रा और उनकी धर्मपत्नी फैजाबाद के रहने वाले हैं। इनके पीछे इनका खंडहर नुमा घर इनकी आर्थिक स्थिति बयां कर रहा है। सब्जी बेचकर परिवार का गुजारा करते हैं। अच्छा है कि इनको कोई संतान नहीं है। वरना उसे भी गरीब सवर्ण के घर पैदा होने की कीमत चुकानी पड़ती। ऐसा लगता है कि गरीब इस देश के नागरिक नहीं हैं।

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