–प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुडी पंडित, कुलपति, जेएनयू
दुर्भाग्य से ऐतिहासिक तोड़ मरोड़ के चलते डॉ हेडगेवार जैसे क्रांतिकारियों की इतिहासकारों द्वारा उपेक्षा के कारण इतिहास में अवांछित कथानकों को स्थान मिल गया है। संपूर्ण विश्व, विशेषतः भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष को बड़े उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। इस वटवृक्ष का बीजारोपण करने वाले महापुरुष डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के दूरदर्शी नेतृत्व का स्मरण सहज ही हो जाता है। उनका 136वा जन्मदिवस गुड़ी पाड़वा, उगाडी और हिन्दू संवत्सर नव वर्ष के शुभ अवसर पर मनाया जा रहा है, जो दुग्ध शर्करा संयोग बन गया है। एतिहासिक रूप से ये त्यौहार भारत के पुनरुत्थान और पुनर्जीवन का प्रतीक हैं, यही आत्मनिर्भर भारत की सशक्त आधारशिला रखती है। डॉ हेडगेवार के सपनों से एकरूपता ही है। आज सभी उनके योगदान को कृतज्ञता से स्मरण करते हैं। उनका जन्म वर्तमान में तेलंगाना प्रांत के कांतिपूर्ति नामक स्थान पर एक तेलगु भाषी परिवार में हुआ था।
दुर्भाग्य से डॉ हेडगेवार जैसे क्रांतिकारियों की मुख्यधारा के इतिहासकारों ने भेदभावपूर्ण उपेक्षा की है। इसके पीछे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसके भारतीयता और सांस्कृतिक मूल्यों की सेवा में लगे मनीषियों एवं क्रांतिकारियों के योगदान को नकारात्मक बनाने की मंशा थी। इस प्रकार की उपेक्षा से डॉ हेडगेवार जैसे महान व्यक्तित्व के वैचारिक और परिवर्तनकारी कार्यों की घोर उपेक्षा की गई है। डॉ हेडगेवार के राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के विचार आज भी बहुत प्रासंगिक हैं। इसलिए उनकी विरासत का मूल्यांकन और भी उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए, जो कि एजेंडा संचालित इतिहास लेखकों की विद्रूपीकरण वाली धारणा से मुक्त हो। अतः यह सिर्फ पुनर्मूल्यांकन की ही नहीं बल्कि मुक्त विचारों से बौद्धिक जिज्ञासा का भी विषय है। तभी समाज भारतीय एकता को गढ़ने, उसे आत्मनिर्भर बनाने और समावेशी भारत निर्माण में उनकी भूमिका को स्पष्ट रूप से समझ पाएगा।
बंकिम चंद्र चटर्जी की लेखनी से प्रभावित डॉ हेडगेवार जीवन के आरंभिक दिनों में ही अनुशीलन समिति से जुड़ गए। इससे ही सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा स्पष्ट होती है। उन्होंने हिंदू समाज को औपनिवेशिक अत्याचारों और आंतरिक विभाजन से बचाने के लिए एक संगठन की आवश्यकता महसूस किया था। समर्थ रामदास, लोकमान्य तिलक, अरविंदो और वीर सावरकर के कार्यों और विचारों से प्रभावित डॉ हेडगेवार थे। उनके अनुसार वास्तविक राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए न सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान भी महत्वपूर्ण है। इस लक्ष्य के संधान हेतु उन्होंने 1925 में विजयादशमी जो कि धर्म की अधर्म पर विजय के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संगठन के नाम में “राष्ट्रीय” शब्द पर विशेष जोर देकर उन्होंने राष्ट्रीय एकता को हिन्दू मूल्यों में निहित किया था।
स्वतंत्रता संग्राम की प्रचलित मुख्यधारा से उनका विचार भिन्न था। महात्मा गांधी के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए भी उन्हें लगता था कि कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी जानेगी लड़ाई इस देश के गहरे सभ्यता मूलक चुनौतियों का समाधान करनी में सक्षम नहीं है। इसीलिए उन्होंने “चरित्र निर्माण” पर विशेष बल दिया, क्योंकि एक चरित्रवान नागरिक ही संयुक्त और आत्मनिर्भर समाज निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए जमीनी स्तर पर जन समूह को जोड़ना होगा। राजनीतिक गतिविधियों में शामिल न होकर भी उन्होंने स्वयंसेवकों को व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया था। आरएसएस को वे गैर राजनीतिक सांस्कृतिक आंदोलन बनाने में लगे रहे। महात्मा गांधी द्वारा 1930 में शुरू किए गए संविनय अवज्ञा आंदोलन में डॉ हेडगेवार ने स्वयंसेवकों को व्यक्तिगत रूप से सक्रिय सहभागी होने पर जोर दिया, जबकि संगठन को इससे दूर रखा। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता के लक्ष्य को पूर्ति था, न कि संगठन के माध्यम से कांग्रेस के साथ उनका श्रेय बांटना। इतनी स्पष्ट वैचारिक परंपरा का निर्वहन आज भी उनके स्वयंसेवक और संघ नेतृत्व करता है।
डॉ हेडगेवार ने आरएसएस को राष्ट्र एकात्मकता की शक्ति के रूप में संगठित किया, जिससे तत्कालीन विभाजित हिंदू समाज का पुनर्गठन हो सके। लोग जाती, प्रांत, भाषा के आधार पर बंटे समाज को राष्ट्र निर्माण के परम लक्ष्य के झंडे तले संगठित किया जा सके। उनके विचारों को आरएसएस में प्राथमिकता से प्रयोग में लाया जाता है, जिससे समाज में सामूहिक पहचान, अनुशासन, सेवाभाव और आध्यात्मिक चेतना का पुर्ननिर्माण किया जा सके। संघ द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन और समाज उत्थान के कार्यों में उनकी दूरदृष्टी परिलक्षित होती है। आज आरएसएस द्वारा संचालित हजारों विद्यालय दूर दराज वनवासी और ग्रामीण भागों में लाखों बच्चों को शिक्षा से जोड़ रहे हैं। इसके माध्यम से डॉ हेडगेवार के समावेशी और शसक्त भारत निर्माण के विचारों को मूर्त रूप दिया जा रहा है।
वर्तमान में वैचारिक द्वंद और ध्रुवीकरण पर एक तीखी बहस छिड़ी हुई है। ऐसे में डॉ हेडगेवार के विचारों और सपनों का पुनर्मूल्यांकन जरूरी ही नहीं, महत्वपूर्ण हो जाता है। आज सामाजिक और राजनीतिक विभाजन देश के लिए बड़ा खतरा है, ऐसे में डॉ हेडगेवार के विचार और आदर्श एक रचनात्मक मार्ग है जो सबको एक करता है। हिंदू एकता का उनका स्वर किसी को बहिष्कृत नहीं करता, बल्कि एक समावेशी राष्ट्रीयता का पक्षधर है। उनके विचारों में भारतीय दर्शन की “वसुधैव कुटुंबकम्” की धारणा झलकती है, जो कि आज भारत को वैश्विक परिदृश्य पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्र की पहचान दिला रहा है।
आज भारत अपने स्वतंत्रता के अमृतकाल में “विकसित भारत” बनने की दिशा में गतिशील है। ऐसे में आरएसएस का शताब्दी वर्ष भी राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में एक बड़े योगदान को तरह देखा जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और पर्यावरण के हर क्षेत्र में आरएसएस ने महत्वपूर्ण कार्य के साथ ही, सामाजिक समरसता और आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में रचनात्मक भूमिका निभाई है। डॉ हेडगेवार ने चरित्र निर्माण पर विशेष जोर देते हुए वर्तमान शासन व्यवस्था में नैतिक मूल्यों पर आधारित नेतृत्व विकास पर विशेष बल दिया था। सामूहिक दायित्व बोध और सेवा ऐसे विचार हैं जो समाज की सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को भली भांति हल कर सकते हैं। कोविड के पश्चात विश्व को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। अतः आरएसएस के 100 वर्ष के निमित्त भारत के पुनर्निर्माण, पुनर्गठन, पुनर्समर्पण और एकीकरण का संकल्प दृढ़ करना चाहिए। वैसे ही जैसे उगादि और गुढ़ी पाड़वा भारत के अलग अलग भागों में नव वर्ष की शुरुआत का संकेत देते हैं, उसी तरह इसकी एकता के सूत्र भी गहराई तक जुड़े हैं। इन त्योहारों के माध्यम से भारत का कृषि चक्र, सांस्कृतिक जीवन और सभ्यता की विरासत निरंतर चलती रहती है, जिसका स्वप्न डॉ हेडगेवार ने देखा था। इन त्योहारों की तरह ही आरएसएस की शताब्दी पूर्ति भी आत्मानुशासन, सेवा और राष्ट्र गौरव की अनुभूति कराते हैं।
डॉ हेडगेवार जैसे क्रांतिकारियों को उपेक्षित करके इतिहासकारों ने एकतरफा कहानी बताई है। डॉ हेडगेवार के योगदान की उपेक्षा करके स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास असंतुलित और अधूरा रह जाता है। इसलिए ऐतिहासिक दस्तावेजों, घटनाक्रमों और योगदानों को फिर से ठीक करना होगा, जिसमें आरएसएस जैसे संगठनों के आधुनिक भारत निर्माण में प्रत्यक्ष योगदान को समझा जा सकेगा। संतुलित इतिहास न सिर्फ शैक्षिक हित में है, बल्कि यह न्याय और पारदर्शिता की मांग भी है। समाजिक एकजुटता, आर्थिक आत्म निर्भरता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण वाले डॉ हेडगेवार के विचार वर्तमान की चुनौतियों का सफलता पूर्वक समाधान निकलने में सक्षम हैं।
मत भूलें कि डॉ हेडगेवार का दृष्टिकोण एकता में शक्ति वाला था, न कि किसी को बहिष्कृत करने वाला। उन्हें पता था कि एक शशक्त और एकजुट भारत ही वैश्विक धरातल पर एक नेतृत्व करने वाला देश बनेगा। भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर गर्व करना किसी को नाराज करना नहीं था, बल्कि हजारों वर्षों से विदेशी आक्रांताओं द्वारा दमित भारतीय सभ्यता के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित करना था। उन्होंने एक ऐसे भारत का स्वप्न देखा जिसमें हर नागरिक बिना किसी भेदभाव के यहां की विरासत पर गर्व करते हुए, उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु प्रयास करता रहे। भविष्य की ओर बढ़ते भारत के लिए डॉ हेडगेवार के विचार एक मार्गदर्शिका रूपेण हैं। शसक्त और संगठित समाज का उनका स्वप्न प्रगतिशील भारत के लिए मूलमंत्र है। उगादि और गुढ़ी पाड़वा के अवसर पर उनकी विरासत का स्मरण करते हुए देश की प्रगति में उसकी अंतर्निहित शक्तियों को जागृत करना होगा। इसे आधुनिकता को परंपरा के साथ सद्भावना पूर्वक विकसित करना होगा, जिसमें सांस्कृतिक विविधता के साथ, अनेकता में एकता के भारतीय मंत्र गर्व और वैश्विकता की प्रतिध्वनि बनेगा। जिसमें डॉ हेडगेवार के विचार सदैव मार्गदर्शक बने रहेंगे।