डॉ. वागीश सारस्वत

मैं जानता हूँ शक्ति हो तुम
तुम ही दुर्गा हो
कात्यानी भी तुम
शक्ति के जितने भी स्वरूप हैं सब मौजूद हैं तुम्हारे भीतर
तुम देवी की आराधना में लीन हो
तुम खण्डित नहीं होने देती दीपक
तुम्हारे चेहरे पर सजी है अखण्डित दमक

तुम
मखमली बादल हो
शीतल हवा हो
धैर्य में धरा हो
सूरज का तेज हो
थोड़ी सी जिद्दी हो
थोड़ी कठोर हो
ममता की सरिता हो
दर्द का सागर हो
ज्ञान का खजाना हो

तुम प्रकृति हो
इस सृष्टि की अनुपम कृति हो

तुम देवी की तपस्या में लीन हो
और मैं तुममें

मेरी आँखों से ओझल नहीं होता तुम्हारा चेहरा
और तुम्हारी आँखों से ओझल नहीं होती अखण्डित लौ
इस लौ में समाई हैं तुम्हारी जिम्मेदारियां
मेरा प्रेम
मेरे लिए तो तुम ही शक्ति हो
देवी हो तुम
मैं जानता हूँ तुम कभी खण्डित नहीं होने दोगी दिया
तुम जानती हो मै नहीं टूटने दूंगा कभी प्रेम की लौ ।।

तुम जानती हो सब कुछ
बिना कुछ कहे ………..!

( वागीश सारस्वत के काव्य संग्रह “छप्पर में उड़से मोरपंख” से)

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