ढूढ़ता हूं मैं आजकल….!
बिन मतलब के,
झूठ-सच बकने वाला…
नमक-मिर्च लगाकर,
बल-बल बातें कहने वाला,
अलबेला… वाचाल… बड़बोला….
सच कहूँ तो…!
नाना के आगे ही नानी के,
गुणगान-बखान करने वाला…
नकलची… बातूनी… मुँह बोला….
कुछ किस्सा-कहनी कहने वाला,
चुलबुली सी नादानी करने वाला….
निश्छल सा मुखौटा… और…
साथ में ढूढ़ता हूँ ….
गाँव-देहात का ऐसा बागड़-बिल्ला…
जिससे पूछ सकूं मैं,
गिनती वाली इकाई और दहाई…
कभी-कभार मँगा सकूं,
जिससे… मैं अपनी घरेलू दवाई…
जो सुना सके मुझे,
बीस तक का उल्टा-सीधा पहाड़ा…
ना कि… पढ़ाने लगे….!
मुझे ही जीवन का पहाड़ा….
जिसको इमला बोलकर
मैं कुछ लिखाऊँ… और….
कठिन शब्दों का ज्ञान कराऊँ…
दो छड़ी की मार देकर,
जोड़-घटाना,गुणा-भाग सिखाऊँ,
कभी कान… कभी गाल….
कर सकूँ आसानी से जिसके लाल….
जिसको रातों में सुना सकूँ,
राजा-रानी और परियों वाली कहानी
जिसे सुनते-सुनते उसको,
आ जाए नींदें सुहानी….
इतना ही नहीं… मैं ढूढ़ता हूँ…
झट से पेड़ पर चढ़ने वाला,
मगन… गुल्ली-डण्डा में रहने वाला…
अपना दोष झट दूसरे पर मढ़ने वाला,
कुछ उल-जुलूल सा पढ़ने वाला…
घर वालों की छाती पर,
अकसर…. कोदों दरने वाला…
कोई पूछे जो…. कारण क्या है…?
बस इतना भर तुम सब जानो….!
जब… इस जड़ को… इस नादाँ को…
मैं कुछ समझा पाउँगा… या…
दे पाउँगा कुछ ज्ञान…!
दुनिया में…. आगे बढ़ने वाला…
तब ही मानेंगे सब मुझको…
“कुम्हार” अलग कुछ गढ़ने वाला…!
“कुम्हार” अलग कुछ गढने वाला…!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज