मध्यम वर्ग का व्यक्ति….
कभी खा नहीं पाता है,
मन-माफ़िक़ स्वादिष्ट व्यंजन….
कभी पहन नहीं पाता है,
ब्रांडेड-फैशनबल कपड़े…
खरीद नहीं पाता है,
बच्चों के लिए नए-नए खिलौने…
ठहर नहीं पाता है,
कभी महँगे होटल में…
पढ़ा नहीं पाता अपने नाती-पोतों को
नर्सरी-कॉन्वेन्ट स्कूलों में….
कभी-कभार तो पूरा नहीं कर पाता,
सस्ते पान तक का भी शौक….
बस इसी संकोच में….!
कि लोग क्या कहेंगे…
इतना ही नहीं और क्या कुछ कहूँ मैं..
गाँव-देश-समाज में….!
खुलकर अपनी बात रखने में…
घर वालों के ही सामने,
अपने जज्बात रखने में….
और तो और क्या कहूँ….?
अपनी ही अफ़रात अच्छाइयाँ
सबसे जताने में….
या फिर दूसरों के,
खुराफात सबको बताने में भी…
उसे बना रहता है… संकोच…
संकोच होता है उसे… बैठने में भी…!
तथाकथित बड़े लोगों के बीच…
असहमत होते हुए भी,
प्रकट नहीं कर पाता अपनी खीझ…
अब क्या ही बताऊँ मित्रों….!
समझ नहीं पाया हूँ मैं आज तक,
संकोच…. अमीरों के सामने…!
गरीबों का सबल पक्ष है….या…
किसी सबल के सामने….!
पीड़ित-गरीब का बल है… पर…
इतना तो जरूर जानता हूँ कि संकोच
एक अदृश्य स्वाभिमानी कीड़ा है….
जो हरदम देता नई-नई पीड़ा है…
साथ ही… यह भी सच है कि….
समाज के सामने…!
संकोच एक आईना भी है… जो…
मजबूर कर देता है सोचने को…कि…
आत्मशोधन करें या आत्मचेतस बने..
साथ ही अन्दर से उकसाता भी है कि
कोई भी मध्यवर्गीय व्यक्ति,
ब्रह्मराक्षस ना बने….!
कोई भी मध्यमवर्गीय व्यक्ति
ब्रह्मराक्षस ना बने….!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज