मुंबई। महाराष्ट्र में पिछले कई सालों से भाजपा भले ही सत्ता के खेल की प्रमुख खिलाड़ी बनी हुई है, लेकिन इसी खेल ने उसका पूरा आधार ही खिसका दिया है। आरएसएस और भाजपा के पुराने नेताओं ने अपने आचरण से जो सैद्धांतिक पूंजी जमाई थी, पिछले कुछ साल के सत्ता के खेल ने उस छवि को तहस नहस कर दिया। आज भाजपा के नेताओं के पास पार्टी विद डिफरेंट कहने के लिए कुछ नहीं बचा। इस विधानसभा चुनाव में पार्टी घिसे पिटे मुद्दों और सहयोगियों के सहारे अस्तित्व के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है।

 पार्टी में धुंआधार दूसरे दलों के नेताओं का आगमन, अजित पवार जैसे नेताओं को साथ लेने, पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को किनारे कर देने तथा कोर वोटरों को भगवान भरोसे छोड़ देने से भाजपा के मुद्दे भी हाथ से चले गए और पुराने वफादार कार्यकर्ता भी पार्टी से दूर हो गए।

महाराष्ट्र चुनाव में इस बार एकनाथ शिंदे और अजित पवार की पार्टी को साथ रखने के लिए बीजेपी ने अपनी ही कई सीटों को छोड़ने का फैसला किया है। अब सामने से देवेंद्र फडणवीस जैसे नेता जरूर इसे गठबंधन धर्म बता रहे हैं, लेकिन जानकार इसमें बीजेपी की कई मजबूरियां भी देख रहे हैं।

सबसे पहले तो समझने वाली बात यह है कि भाजपा के खिलाफ राज्य में सत्ता विरोधी लहर कायम है।
एक दूसरी बात समझने वाली यह भी है कि महाराष्ट्र में अभी भी मराठा आरक्षण का मुद्दा काफी बड़ा बना हुआ है। इस वर्ग में ज्यादातर लोग बीजेपी को अपना विरोधी भी समझते हैं। वैसे बीजेपी ने अपने ही कई उम्मीदवारों को शिवसेना और आरपीआई (आठवले), महादेव जानकर, और अजित पवार की पार्टी के सिंबल से टिकट दिलवा दिया है, खास करके आरपीआई मे काफी नाराजगी जताई जारही है। दलितों में इस बात की चर्चा है कि भाजपा ने आरपीआई की सीटों पर भी अपने ही कैंडिडेट उतार दिए और आरपीआई का कोई कार्यकर्ता टिकट नहीं पा सका। लोग पूछ रहे हैं कि क्या आरपीआई में चुनाव लड़ने लायक कोई नेता है ही नहीं? यह आरपीआई कार्यकर्ताओं का अपमान है।

       जानकर लोग यह भी बताते हैं कि इस चुनाव में भाजपा को कट्टर और पारंपरिक वोटरों, छोटे व्यापारियों और युवा वर्ग की भी नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। नाराज लोग नोटा वाला बटन दबाने की तैयारी कर रहे हैं। चर्चा है कि इस बार मुस्लिम और दलित वोट मिलकर चमत्कार कर सकते हैं। भाजपा  पार्टी के अंदर पैदा हो रहे असंतोष के साथ सहयोगी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता हराने के काम मे लगे हैं।

 भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले कुछ अतिरिक्त सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी के सामने चुनौतियां कम हैं। एक तरफ अगर मराठा आरक्षण वाला मुद्दा भाजपा के लिए सिर दर्द बना हुआ है तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के सबसे बड़े नेता देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, जिनका महाराष्ट्र में असर काफी कम है। इसके ऊपर किसानों की नाराजगी, बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी बीजेपी को बैकफुट पर कर देते हैं। अब सवाल वही है- क्या गठबंधन के सहारे बीजेपी अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है? क्या गठबंधन के सहारे वो अपने प्रति पैदा हुए आक्रोश को कम करने की कवायद में है? भाजपा और उनके गठबंधन के खिलाफ लोगों ने मन बना लिया है, और इस बार नोटा का बोलबाला दिखाई दे रहा है।

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