सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं

सियासती, मजहबी रंग कहाँ भाये मुझे

गाढ़ा पक्का माटी का रंग फितरत मेरी

कोई ओर रंग नहीं चढ़ा पाऊँगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

आँगन की खुशियां भरकर बाहों में

खेतों की हरियाली बसाये आँखों में

निकल पड़ता हूँ सरहद पर मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

हिमालय के ऊंचे पहाड़ हों या असीम सागर

हिम्मत और जुर्रत के सिवा कुछ नहीं पास मेरे

फिर भी मग़र

लुटा कर जान, देश की

अस्मत बचा लूँगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

बिश्वास करोड़ों जन का

फौलाद बना लिया मन का

हर वार सह लूँगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

जरूरतों को समेट कर रखा है

अपने ऐशो-आराम से पहले मुल्क को रखा है

पहाड़ को चीर ,समुद्र को पी लूँगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

जब आयेगा वो वक़्त भी

सारी यादों का सबाब भी होगा

आंखे बंद फिर से जीवन जी लूँगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

जन्म कम पड़ा तेरे कर्ज उतारने में

ऐ महबूब वतन चाहे जिन्दगी भी बीत जाए फ़र्ज़ निभाने में

जन्म लेकर फिर से आऊंगा मैं

सिपाही हूँ ताउम्र सिपाही रहूँगा मैं।

सियासती, मजहबी रंग कहाँ भाये मुझे

गाढ़ा पक्का माटी का रंग फितरत मेरी

कोई ओर रंग नहीं चढ़ा पाऊँगा मैं।

रचनाकार :

कर्नल राजेश कुमार लंगेह

(डीसी, बी एस एफ)

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