देख सखी री….!

फिर आया सावन झूम के…

सोच रही हूँ कजरी गाऊँ,

सखियों संग मैं रास रचाऊँ….

और झूला झूलूँ झूम के…

पर…परदेशी साजन बोले…

आओ पगली मोबाइल के जूम पे

***** ***** *****

सनकी साजन फिर-फिर कहता

चैट करेंगे,वी-सी होगी…और…

होगी नजरें अपनी चार…

अब तुम ही बताओ सखी री…

कैसे उसको मैं समझाऊँ…?

प्यार उधार रहेगा पगले…

जब ऐसे हम दोनों मिलेंगे,

मोबाइल के ज़ूम पे…!

***** ***** *****

फिर भी…सखी री..…!

मैं तो यह भी सोचूँ…

भले दूर है सावन में प्रियतम

पर खले ना मुझको यह दूरी…

जो मैं घुस-घुस कर देखूँ….!

मोबाइल में उसकी दुनिया पूरी…

मधुर मिलन हो ना पाए सखी…

पर…कम् हो जाती मन की दूरी…

और…बस इसी बहाने…

कुछ तो कम हो ही जाते हैं…

मन में भरे…गिले-शिकवे…!

भले ही मिलती हूँ मैं साजन से

छुप-छुपके..मोबाइल के ज़ूम पे…

***** ****** *****

जान रही हूँ मैं तो सखी री,

साजन की…हर इक मजबूरी…!

मैं तो यह भी जानू सखी री,

भूल नहीं सकता वह मुझको,

चाहे आये कहीं से वह घूम के….!

विवश करे देता है मुझको..

जब भी कुछ कहता अपने लब से

भूल ही जाती हूँ मैं सब कुछ..और

लुट जाती हूँ छलिया के करतब पे

सच में…जब वह मिलता मुझसे..

आकर मोबाइल के ज़ूम पे….!

***** ***** *****

यह तो बताओ सखी री…!

गरम हमारी हर इक सांसें हैं

कैसे समझेगा वह जूम पे…?

कैसे नजरे पहुँचेंगी उसकी,

दिल से उठते धूम पे….

ना जान सकेगा…वह कुछ भी…

क्या बीत रही है होती

उसकी इस पगली…सूम पे…!

जब वह मिलता है आकर….

मुझसे मोबाइल के जूम पे

***** ***** *****

मैं तो यह भी जानू सखी री…

नित नई ऊँचाई पाने को…!

वह करता मीटिंग ज़ूम पे…

तय माना…एक दिन लौटेगा वह..

सारे शिखरों को चूम के…पर…

कौन बताये यह…उस पगले को…

कभी न वापस लौटा है…!

समय और यौवन घूम के…

कौन बताये…यह सच उसको….

व्यर्थ ही उलझा है वह…

सावन में,मोबाइल के ज़ूम पे…!

***** ***** *****

मान लिया सखी री…!

यह सावन तो कटेगा मेरा,

मोबाइल के जूम पे….पर…!

तुम ही बताओ सब सखी-सहेली,

वह पल कैसा होगा….?

जब सावन में…हर दिन बीतेगा…

साजन का अपने रूम पे…

जान रही हूँ…मैं बस इतना….!

तब…खुद ही कहेगा वह पगला…

क्यों मिलते थे मोबाइल के ज़ूम पे

क्यों मिलते थे मोबाइल के जूम पे

रचनाकार….

जितेन्द्र कुमार दुबे

अपर पुलिस अधीक्षक

जनपद… कासगंज

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