ग़लती तुम्हारी नहीं थी एकलव्य
जो काट दिया अंगूठा द्रोणाचार्य के मांगने पर
तुम जानते थे सत्य के हिमायती नहीं हैं द्रोणाचार्य
फिर भी काट दिया था अंगूठा गुरुदक्षिणा के नाम पर

वक्त के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं
मगर द्रोणाचार्य कभी नहीं बदलते
कई चेहरों में हमेशा उपस्थित रहते हैं आसपास
आहिस्ता- आहिस्ता निकलते हैं
अपने हितों की बैसाखियां बनाकर चलते हैं
श्रद्धा को विकलांग बना देते हैं
और अपनों को ही छलते हैं

श्रद्धा में डूबे एकलव्य
चुपचाप सीख लेते हैं पार्थ को परास्त करने का हुनर
पर गुरुभक्ति एकलव्यों का कवच नहीं बन पाती
श्रद्धा और श्रम से हासिल हुनर को छीन लेते हैं द्रोणाचार्य
श्वान-मुख को तीरों से बंद करके भी एकलव्य बच नहीं पाते हैं
द्रोणाचार्यों के हाथों ही ठगे जाते हैं

द्रोणाचार्य अब भी पढ़ाते हैं कौरवों और पांडवों को साथ-साथ
करते हैं पक्षपात
राजभय नहीं है , राजमोह है
कौरव और पांडव युद्ध में जुटेंगे जब
द्रोणाचार्य राजमोह से नहीं बच पाएंगे
अंगूठा कटवाकर एकलव्य हमेशा छटपटाएंगे
सत्य का विरोध द्रोण की मजबूरी है
राजगुरु की पदवी जरूरी है
द्रोणाचार्य बदल नहीं सकते
नहीं बदल सकते कौरव और पांडव
मगर एकलव्य बदल सकते हैं
श्रद्धा के शाप से मुक्त हो सकते हैं

एकलव्य आज भी
सत्य और ज्ञान के , पौरुष और मान के
गुरु- गुरुभक्ति के, निष्ठा के, शक्ति के
महज अभिलाषी हैं
वो हासिल करते हैं जो ज्ञान तप और त्याग से
उसे छीन लेते हैं द्रोणाचार्य बिलकुल विराग से

आज भी द्रोणाचार्य के साथी हैं छल और प्रपंच
तो श्रद्धा और निष्ठा एकलव्यों की ढाल हैं
अंगूठा कटे एकलव्य द्रोणाचार्यों के लिए चुनौती हैं
और द्रोणाचार्य विकसित समाज के लिए पनौती हैं

द्रोण के द्वेष से समाज मुक्त होना चाहिए
एकलव्यों का अंगूठा अब नहीं कटना चाहिए

अगर कटता रहेगा एकलव्यों का अंगूठा
तो शिक्षा का लहलहाता पेड़ ठूँठ बन जाएगा
द्रोणाचार्यों की वजह से ‘ गुरू ‘ शब्द
इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ बन जाएगा ।

डॉ. वागीश सारस्वत के कविता संकलन
( छप्पर में उड़से मोरपंख ) में से यह कविता ली गयी है।

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