सखी री…एहि सावन में…
अच्छे-खासे….रूठ गए हैं बदरा….
देखो तो….बिन बरखा के कारन…
सूखे और चटख से हो गए हैं….
मेरे नैनों के कज़रा….और….
छोड़ रहे हैं ये तो पपड़ी-पपड़ा…
बैरी बदरन के कारन ही….
सखी री….सूख रहे हैं गरवा-कण्ठ…
दुगुन ताप बढ़ावत यहि में….!
जो परदेश बसा….मेरा कंत….
और कहूँ क्या तुमसे सखी री,
बिरह अगनि में…गरम चले है सांस…
मानो या ना मानो तुम,
मोहें तो लागत ऐसौ….
बस यहि कारन ही तो….
सकल प्रकृति हुई है उदास…
जो कछु भी है ओंस गिरन को…!
भूईं परै से पहिले ही…..
भसम-भसम होय जात….
कैसे कहूँ सखी री….!
धधक रही है देह बावरी,
मोसे बसन पहिर नहि जात….
करवट बदलत ही सखि…अब तो..
नयकी कथरी भी…जरि-जरि जात….
लोक-लाज के बस कारने,
घूँघट में मैं…अबहूँ भी लजिआत…
गौर से तू देख सखी री….!
रंग साँवरो मेरो अब तो….
लाल-लाल होय जात….
बिन बरखा अरु साजन के…
मोर सब सिंगार चौपट होय-होय जात
सकल शरीर के…कंचन-सोना तो…
विरह ताप की तपिश में….
और खरो-खरो सो होय जात….
निगोड़ी पायल तो अनायास ही….!
उजरी पर उजरी होवे जात….
साच कहूँ तो..सुन मेरी प्यारी सखी री
रूठे सजना….संग में….रूठे बदरा…
अब नीक कहाँ लागे….सासु-ससुरा…
जेठ-जेठानी…देवर-ननदी…सब ही…
लागत मोहे…कपटी और छछन्दी…
सच मान सखी री….एहि सावन में तो
बिन सजना और बरखा बिन…!
पागल-बाउर होइके,
घूम रही….मैं तो रातो-दिन….
मोहें समझ ना आवत अब एकौ विधि
कैसे कौन जतन करूँ….मैं सखी री..
जिन नैनन में नीर न दीखे,
जिनके कज़रा अब तक ना भीजे,
उन सूखे नैनन में…..
मैं नीर कहॉं से भरुँ….सखी री…
हांड-मास सब जात जरत है,
धधकत हिय में भीषण ज्वाला…
फिर…मत ताप बढ़ाओ…!
अब तू भी सखी री…
झट दूर चली जा मुझसे….
देकर मुझको इक बिष का प्याला…
देकर मुझको इक बिष का प्याला…

रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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