व्यंग्य / डॉ. वागीश सारस्वत

होली आती है। रंग बरसाती है। इस बार भी होली में तरह-तरह के रंग बरस रहे हैं। चुनरवालियां भीग रही हैं। होली के दिन बात करने में टाइम वेस्ट नहीं किया जाता। चांस मारा जाता है। चांस मिलते ही गोरे-गोरे गालों पर रंग-अबीर मल दिया जाता है। इस तरह हो जाता है प्यार का इजहार। अंग्रेज लोगों के वेलेंटाइन डे की तरह है अपनी होली। सच्ची-सच्ची बोलो तो रंग लगाकर प्यार का इजहार करने में जो थ्रिल है वो एक छोटे-से कार्ड पर ‘आई लव यू’ लिख कर देने में नहीं है।

आपको तो मालू्म ही है कि प्यार की कोई उम्र नहीं होती। होली ही वह दिन है जब बूढ़ों का दिल भी जवानों की तरह बल्लियों उछलने लगता है।

उनके हाथों में भारी भरकम पिचकारी उठाने की ताकत भले ही ना बची हो पर गोरी के गालों पर गुलाल मलने में में बिलकुल भी पीछे नहीं रहते ।

वैसे सच्ची बात तो यह है कि अपने को बचपन में ही मालूम पड़ गया था कि होली लफड़े वाला ‘डे’ है। तब प्यार-व्यार का लफड़ा मालूम नहीं था। अभी तो हम शर्त लगा कर कह सकते हैं कि होली ‘लवर्स डे’ है। सरेआम, खुले तौर पर बेहिचक, बेझिझक, बेहया, बेशरम होकर गालों पर अबीर -गुलाल लगाकर गोरी के सामने प्यार का इजहार करने का दिन है। अपना एक हैंडसम गॉड है-कृष्णा। उसने एक साथ सोलह हजार लड़कियों से शादी की थी। शादी की एवरेज से प्यार की एवरेज निकालो तो समझ में आ जाएगा। बाप रे बाप! कितनी गोरी गोपियों के गोरे गालों पर रंग लगाकर फंसाया होगा अपने प्यार के लफड़े में।

जबसे अपने को मालूम हुआ है कि होली लवर्स डे है तब से यही सोच रहे हैं कि पहली होली कैसे मनाई गई होगी और क्यों मनाई गई होगी? यह समझना मुश्किल बात है इसलिए सोचना बेकार है। इस बार की जो लेटेस्ट होली है बड़े कमाल की होली है। इस होली में हुरियारों की कमी नहीं है। रसिया गाते, ढोल बजाते सब हाजिर हैं। होली का एक मूलमंत्र है-बुरा न मानो होली है। चांस लेते जाओ और इस मंत्र का जाप करते जाओ-बुरा न मानो होली है। मैं कई बार सोचता हूं कि नंदगांव और बरसाने में लठामार होली क्यों होती है? अपन थोड़ा विश्लेषण पसंद आदमी हैं। लॉजिक ढूंढने में मजा आता है। बताइए, एक-दूसरे पर लाठी बरसाकर होली खेलने के पीछे क्या गहरा राज है? अपने को लगता है कि जब होली शुरू हुई होगी तो वहां के मनचलों ने एक-दूसरे के गांव की गोरियों से ज्यादा ही छेड़-छाड़ कर दी होगी। फिर गांव वालों के सामने आया होगा नाक का सवाल।

‘नारी! तू नारी नहीं, आरी है’ का नारा उछाला होगा। यह उन औरतों ने किया होगा जिन्हें छेड़ने दूसरे गांव से हुरियार आए थे। उन पर लाठियां बरसाई गई होंगी। जिस गांव के लोगों ने लाठियां बरसाई होंगी उस गांव का नाम बाद में बरसाने पड़ा होगा। इतिहास के विद्यार्थी इस बात को नोट कर सकते हैं। निःसंदेह ये लाठियां नंदगांव के लोगों पर बरसी होंगी। हर साल लाठियां बरसती हैं। जनम-जनम का बैर जो ठहरा। होली के दिन तक सब खुद को संभालते हैं। होली के दिन सब्र के बांध पर धूल पड़ जाती है और हवा में लाठियां लहराने लगती हैं।

तो आप भी इस होली में गोरी के गालों पर गुलाल लगाकर प्रेम का इजहार करने जा रहे हैं? भई इंडियन वेलेंटाइन डे है, मनाना तो पड़ेगा ही। रोमांचक मामला है। अब देशी मामला है तो इसमें विदेशी नजाकत तो होने से रही। होली में नजाकत-वजाकत घुसी तो समझो हो गई होली किरकिरी। रंग में भंग इसी को कहते हैं-भांग पीने के लिए गिलास उठाया और उसमें पड़ गया रंग। वैसे सच बोलूं तो मुझे होली के नाम से फुरफुरी होने लगती है। फुरफुरी इसलिए होती है कि डर लगता है। डर ये कि कहीं भांग के नशे में कोई चूक न हो जाए और नौबत लठामार होली तक न पहुंच जाए।

अगर हुरियारों की टोली आ जाए तो निकलना ही पड़ता है हाथों में रंग और गुलाल लेकर। इस महंगाई के टाइम में रंग-गुलाल खरीदने में भी मुझे फुरफुरी हो रही है। सोचता हूं कि इस बार यारों से मांगकर ही काम चलाऊं। जल्दी से होली के लिए रखे पुराने कपड़े पहन लूं। अच्छे कपड़े हुरियारों ने खराब कर दिए तो लांड्री का खर्चा कहां से आएगा।

व्यंग्य लिखकर तो बच्चों के लिए पिचकारी खरीदने लायक पैसे भी नहीं मिलते । सोचता हूं कि ये पूरी होली ही उधार पर गुजार दूं। यों भी शादी-शुदा आदमी को घर में ही प्यार का इजहार करना पड़ता है।

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